आज सुबह जैसे ही अखबार की पहली खबर देखी तो यूं समझों आंखों से आंसू फूट पडे। सामान्य तौर पर मैं एक पत्रकार धर्म का पूरा निर्वहन करता हूं और कम से कम ही भावुक होने का प्रयास करता हूं। क्योंकि भावनाओं में बहकर पत्रकारिता नहीं की जा सकती। हां, संवेदनशील जरूर होना चाहिए और संवेदनाएं मेरे में कूट कूट भरी है। लेकिन जोधपुर में रेजीडेंट डॉक्टरों की हडताल और उसके बाद सात नवजात शिशुओं समेत चौदह की मौत ने मुझे भीतर तक से कचौट दिया। लेबर रूम जैसी जगहों पर नर्सिंग स्टाफ प्रसूताओं को छोड भागा तो वार्डों में तडफते मरीजों ने दवा के अभाव में दम तोड दिया। डॉक्टरों को यूं तो भगवान का दर्जा शुरू से ही प्राप्त है, लेकिन इस घटना बाद मैं तो ताउम्र शायद ही इस पेशे से जुडे लोगों को भगवान कहूं। लोकतंत्र में हर व्यक्ति को अपनी बात कहने का पूरा हक है। लेकिन यह हक किसी को नहीं कि अपनी मांग मनवाने के लिए आप किसी का गला घोंट दें। आप सोचेंगे गला तो नहीं घोंटा गया, लेकिन मैं तो इतना कहूंगा कि गला घोंटने से भी बडा अपराध किया गया। सीधा सीधा हत्या करना है यह और वह भी तडफा तडफाकर। आप भले ही सहमत हो या न हों, लेकिन मैं जो लिखा, उसे भी कम आंक रहा हूं।
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