Sunday, November 7, 2010
Thursday, September 23, 2010
मुंशी प्रेमचंद
प्रेमचंद (31 जुलाई 1880 - 8 अक्टूबर 1936) के उपनाम से लिखने वाले धनपत राय श्रीवास्तव हिन्दी और उर्दू के महानतम भारतीय लेखकों में से एक हैं। उन्हें मुंशी प्रेमचंद व नवाब राय नाम से भी जाना जाता है और उपन्यास सम्राट के नाम से सम्मानित किया जाता है। इस नाम से उन्हें सर्वप्रथम बंगाल के विख्यात उपन्यासकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने संबोधित किया था। प्रेमचंद ने हिन्दी कहानी और उपन्यास की एक ऐसी परंपरा का विकास किया जिस पर पूरी शती का साहित्य आगे चल सका। इसने आने वाली एक पूरी पीढ़ी को गहराई तक प्रभावित किया और साहित्य की यथार्थवादी परंपरा की नीव रखी। उनका लेखन हिन्दी साहित्य एक ऐसी विरासत है जिसके बिना हिन्दी का विकास संभव ही नहीं था। वे एक सफल लेखक, देशभक्त नागरिक, कुशल वक्ता, ज़िम्मेदार संपादक और संवेदनशील रचनाकार थे। बीसवीं शती के पूर्वार्द्ध में जब हिन्दी में काम करने की तकनीकी सुविधाएँ नहीं थीं इतना काम करने वाला लेखक उनके सिवा कोई दूसरा नहीं हुआ। प्रेमचंद के बाद जिन लोगों ने साहित्य को सामाजिक सरोकारों और प्रगतिशील मूल्यों के साथ आगे बढ़ाने का काम किया, उनके साथ प्रेमचंद की दी हुई विरासत और परंपरा ही काम कर रही थी। बाद की तमाम पीढ़ियों, जिसमें यशपाल से लेकर मुक्तिबोध तक शामिल हैं, को प्रेमचंद के रचना-कर्म ने दिशा प्रदान की।
जीवन परिचय
प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1880 को वाराणसी के निकट लमही गाँव में हुआ था। उनकी माता का नाम आनन्दी देवी था तथा पिता मुंशी अजायबराय लमही में डाकमुंशी थे। उनकी शिक्षा का आरंभ उर्दू, फारसी से हुआ और जीवन यापन का अध्यापन से।१८९८ में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे एक स्थानीय विद्यालय में शिक्षक नियुक्त हो गए। नौकरी के साथ ही उन्होंने पढ़ाई जारी रखी 1910 में इंटर पास किया और 1919 में बी.ए. पास करने के बाद स्कूलों के डिप्टी सब-इंस्पेक्टर पद पर नियुक्त हुए। सात वर्ष की अवस्था में उनकी माता तथा चौदह वर्ष की अवस्था में पिता का देहान्त हो जाने के कारण उनका प्रारंभिक जीवन संघर्षमय रहा।उनका पहला विवाह उन दिनों की परंपरा के अनुसार पंद्रह साल की उम्र में हुआ जो सफल नहीं रहा। वे आर्य समाज से प्रभावित रहे, जो उस समय का बहुत बड़ा धार्मिक और सामाजिक आंदोलन था। उन्होंने विधवा-विवाह का समर्थन किया और 1906 में दूसरा विवाह अपनी प्रगतिशील परंपरा के अनुरूप बाल-विधवा शिवरानी देवी से किया। उनकी तीन संताने हुईं- श्रीपत राय, अमृतराय और कमला देवी श्रीवास्तव। 1910 में उनकी रचना सोजे-वतन (राष्ट्र का विलाप) के लिए हमीरपुर के जिला कलेक्टर ने तलब किया और उन पर जनता को भड़काने का आरोप लगाया। सोजे-वतन की सभी प्रतियां जब्त कर नष्ट कर दी गई। कलेक्टर ने नवाबराय को हिदायत दी कि अब वे कुछ भी नहीं लिखेंगे, यदि लिखा तो जेल भेज दिया जाएगा। इस समय तक प्रेमचंद ,धनपत राय नाम से लिखते थे। उर्दू में प्रकाशित होने वाली ज़माना पत्रिका के सम्पादक मुंशी दयानारायण निगम ने उन्हें प्रेमचंद नाम से लिखने की सलाह दी। इसके बाद वे प्रेमचन्द के नाम से लिखने लगे। जीवन के अंतिम दिनों में वे गंभीर रुप से बीमार पड़े। उनका उपन्यास मंगलसूत्र पूरा नहीं हो सका और लंबी बीमारी के बाद 8 अक्टूबर 1936 को उनका निधन हो गया।
कार्यक्षेत्र
प्रेमचंद आधुनिक हिन्दी कहानी के पितामह माने जाते हैं। यों तो उनके साहित्यिक जीवन का आरंभ 1901 से हो चुका था, पर उनकी पहली हिन्दी कहानी सरस्वती पत्रिका के दिसंबर अंक में 1915 में सौत नाम से प्रकाशित हुई और 1936 में अंतिम कहानी कफन नाम से। बीस वर्षों की इस अवधि में उनकी कहानियों के अनेक रंग देखने को मिलते हैं। उनसे पहले हिंदी में काल्पनिक, एय्यारी और पौराणिक धार्मिक रचनाएं ही की जाती थी। प्रेमचंद ने हिंदी में यथार्थवाद की शुरूआत की। " भारतीय साहित्य का बहुत सा विमर्श जो बाद में प्रमुखता से उभरा चाहे वह दलित साहित्य हो या नारी साहित्य उसकी जड़ें कहीं गहरे प्रेमचंद के साहित्य में दिखाई देती हैं।" अपूर्ण उपन्यास असरारे मआबिद के बाद देशभक्ति से परिपूर्ण कथाओं का संग्रह सोज़े-वतन उनकी दूसरी कृति थी, जो 1908 में प्रकाशित हुई। इसपर अँग्रेज़ी सरकार की रोक और चेतावनी के कारण उन्हें नाम बदलकर लिखना पड़ा। प्रेमचंद नाम से उनकी पहली कहानी बड़े घर की बेटी ज़माना पत्रिका के दिसंबर 1910 के अंक में प्रकाशित हुई। मरणोपरांत उनकी कहानियाँ मानसरोवर के कई खंडों में प्रकाशित हुई। उपन्यास सम्राट प्रेमचन्द का कहना था कि साहित्यकार देशभक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई नहीं बल्कि उसके आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सच्चाई है। यह बात उनके साहित्य में उजागर हुई है। 1921 में उन्होंने महात्मा गांधी के आह्वान पर अपनी नौकरी छोड़ दी। कुछ महीने मर्यादा पत्रिका का संपादन भार संभाला, 6 साल तक माधुरी नामक पत्रिका का संपादन किया, 1930 में बनारस से अपना मासिक पत्र हंस शुरू किया और 1932 के आरंभ में जागरण नामक एक साप्ताहिक और निकाला। उन्होंने लखनऊ में 1936 में अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ के सम्मेलन की अध्यक्षता की। उन्होंने मोहन दयाराम भवनानी की अजंता सिनेटोन कंपनी में कहानी-लेखक की नौकरी भी की। 1934 में प्रदर्शित मजदूर नामक फिल्म की कथा लिखी और कंट्रेक्टकी साल भर की अवधि पूरी किये बिना ही दो महीने का वेतन छोड़कर बनारस भाग आये क्योंकि बंबई (आधुनिक मुंबई) का और उससे भी ज़्यादा वहाँ की फिल्मी दुनिया का हवा-पानी उन्हें रास नहीं आया। प्रेमचंद ने करीब तीन सौ कहानियाँ, कई उपन्यास और कई लेख लिखे। उन्होंने कुछ नाटक भी लिखे और कुछ अनुवाद कार्य भी किया। प्रेमचंद के कई साहित्यिक कृतियों का अंग्रेज़ी, रूसी, जर्मन सहित अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ। गोदान उनकी कालजयी रचना है. कफन उनकी अंतिम कहानी मानी जाती है। तैंतीस वर्षों के रचनात्मक जीवन में वे साहित्य की ऐसी विरासत सौप गए जो गुणों की दृष्टि से अमूल्य है और आकार की दृष्टि से असीमित।
कृतियां
प्रेमचन्द की रचना-दृष्टि, विभिन्न साहित्य रूपों में, अभिव्यक्त हुई। वह बहुमुखी प्रतिभा संपन्न साहित्यकार थे। उन्होंने उपन्यास, कहानी, नाटक, समीक्षा, लेख, सम्पादकीय, संस्मरण आदि अनेक विधाओं में साहित्य की सृष्टि की किन्तु प्रमुख रूप से वह कथाकार हैं। उन्हें अपने जीवन काल में ही ‘उपन्यास सम्राट’ की पदवी मिल गयी थी। उन्होंने कुल 15 उपन्यास, 300 से कुछ अधिक कहानियाँ, 3 नाटक, 10 अनुवाद, 7 बाल-पुस्तकें तथा हजारों पृष्ठों के लेख, सम्पादकीय, भाषण, भूमिका, पत्र आदि की रचना की लेकिन जो यश और प्रतिष्ठा उन्हें उपन्यास और कहानियों से प्राप्त हुई, वह अन्य विधाओं से प्राप्त न हो सकी। यह स्थिति हिन्दी और उर्दू भाषा दोनों में समान रूप से दिखायी देती है। उन्होंने ‘रंगभूमि’ तक के सभी उपन्यास पहले उर्दू भाषा में लिखे थे और कायाकल्प से लेकर अपूर्ण उपन्यास ‘मंगलसूत्र’ तक सभी उपन्यास मूलतः हिन्दी में लिखे। प्रेमचन्द कथा-साहित्य में उनके उपन्याकार का आरम्भ पहले होता है। उनका पहला उर्दू उपन्यास (अपूर्ण) ‘असरारे मआबिद उर्फ़ देवस्थान रहस्य’ उर्दू साप्ताहिक ‘'आवाज-ए-खल्क़'’ में 8 अक्तूबर, 1903 से 1 फरवरी, 1905 तक धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुआ। उनकी पहली उर्दू कहानी दुनिया का सबसे अनमोल रतन कानपुर से प्रकाशित होने वाली ज़माना नामक पत्रिका में 1908 में छपी। उनके कुल 15 उपन्यास है, जिनमें 2 अपूर्ण है। बाद में इन्हें अनूदित या रूपान्तरित किया गया। प्रेमचन्द की मृत्यु के बाद भी उनकी कहानियों के कई सम्पादित संस्करण निकले जिनमें कफन और शेष रचनाएँ 1937 में तथा नारी जीवन की कहानियाँ 1938 में बनारस से प्रकाशित हुए। इसके बाद प्रेमचंद की ऐतिहासिक कहानियाँ तथा प्रेमचंद की प्रेम संबंधी कहानियाँ भी काफी लोकप्रिय साबित हुईं। नीचे उनकी कृतियों की विस्तृत सूची है।
समालोचना
मुख्य लेख : प्रेमचंद के साहित्य की विशेषताएं
प्रेमचन्दउर्दूका संस्कार लेकर हिन्दी में आए थे और हिन्दी के महान लेखक बने। हिन्दी को अपना खास मुहावरा ऑर खुलापन दिया। कहानी और उपन्यास दोनो में युगान्तरकारी परिवर्तन पैदा किए। उन्होने साहित्य में सामयिकता प्रबल आग्रह स्थापित किया। आम आदमी को उन्होंने अपनी रचनाओं का विषय बनाया और उसकी समस्याओं पर खुलकर कलम चलाते हुए उन्हें साहित्य के नायकों के पद पर आसीन किया। प्रेमचंद से पहले हिंदी साहित्य राजा-रानी के किस्सों, रहस्य-रोमांच में उलझा हुआ था। प्रेमचंद ने साहित्य को सच्चाई के धरातल पर उतारा। उन्होंने जीवन और कालखंड की सच्चाई को पन्ने पर उतारा। वे सांप्रदायिकता, भ्रष्टाचार, जमींदारी, कर्जखोरी, गरीबी, उपनिवेशवाद पर आजीवन लिखते रहे। प्रेमचन्द की ज्यादातर रचनाएं उनकी ही गरीबी और दैन्यता की कहानी कहती है। ये भी गलत नहीं है कि वे आम भारतीय के रचनाकार थे। उनकी रचनाओं में वे नायक हुए, जिसे भारतीय समाज अछूत और घृणित समझा था. उन्होंने सरल, सहज और आम बोल-चाल की भाषा का उपयोग किया और अपने प्रगतिशील विचारों को दृढ़ता से तर्क देते हुए समाज के सामने प्रस्तुत किया। 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ के पहले सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए उन्होंने कहा कि लेखक स्वभाव से प्रगतिशील होता है और जो ऐसा नहीं है वह लेखक नहीं है। प्रेमचंद हिन्दी साहित्य के युग प्रवर्तक हैं। उन्होंने हिन्दी कहानी में आदर्शोन्मुख यथार्थवाद की एक नई परंपरी शुरू की।
मुंशी के विषय में विवाद
प्रेमचंद को प्रायः "मुंशी प्रेमचंद" के नाम से जाना जाता है। प्रेमचंद के नाम के साथ 'मुंशी' कब और कैसे जुड़ गया? इस विषय में अधिकांश लोग यही मान लेते हैं कि प्रारम्भ में प्रेमचंद अध्यापक रहे। अध्यापकों को प्राय: उस समय मुंशी जी कहा जाता था। इसके अतिरिक्त कायस्थों के नाम के पहले सम्मान स्वरूप 'मुंशी' शब्द लगाने की परम्परा रही है। संभवत: प्रेमचंद जी के नाम के साथ मुंशी शब्द जुड़कर रूढ़ हो गया। प्रोफेसर शुकदेव सिंह के अनुसार प्रेमचंद जी ने अपने नाम के आगे 'मुंशी' शब्द का प्रयोग स्वयं कभी नहीं किया। उनका यह भी मानना है कि मुंशी शब्द सम्मान सूचक है, जिसे प्रेमचंद के प्रशंसकों ने कभी लगा दिया होगा। यह तथ्य अनुमान पर आधारित है। लेकिन प्रेमचंद के नाम के साथ मुंशी विशेषण जुड़ने का प्रामाणिक कारण यह है कि 'हंस' नामक पत्र प्रेमचंद एवं 'कन्हैयालाल मुंशी' के सह संपादन मे निकलता था। जिसकी कुछ प्रतियों पर कन्हैयालाल मुंशी का पूरा नाम न छपकर मात्र 'मुंशी' छपा रहता था साथ ही प्रेमचंद का नाम इस प्रकार छपा होता था- (हंस की प्रतियों पर देखा जा सकता है)।
संपादक मुंशी, प्रेमचंद
'हंस के संपादक प्रेमचंद तथा कन्हैयालाल मुंशी थे। परन्तु कालांतर में पाठकों ने 'मुंशी' तथा 'प्रेमचंद' को एक समझ लिया और 'प्रेमचंद'- 'मुंशी प्रेमचंद' बन गए। यह स्वाभाविक भी है। सामान्य पाठक प्राय: लेखक की कृतियों को पढ़ता है, नाम की सूक्ष्मता को नहीं देखा करता। आज प्रेमचंद का मुंशी अलंकरण इतना रूढ़ हो गया है कि मात्र मुंशी से ही प्रेमचंद का बोध हो जाता है तथा 'मुंशी' न कहने से प्रेमचंद का नाम अधूरा-अधूरा सा लगता है।
विरासत
प्रेमचंद ने अपनी कला के शिखर पर पहुँचने के लिए अनेक प्रयोग किए। जिस युग में प्रेमचंद ने कलम उठाई थी, उस समय उनके पीछे ऐसी कोई ठोस विरासत नहीं थी और न ही विचार और प्रगतिशीलता का कोई मॉडल ही उनके सामने था सिवाय बांग्ला साहित्य के। उस समय बंकिम बाबू थे, शरतचंद्र थे और इसके अलावा टॉलस्टॉय जैसे रुसी साहित्यकार थे। लेकिन होते-होते उन्होंने गोदान जैसे कालजयी उपन्यास की रचना की जो कि एक आधुनिक क्लासिक माना जाता है। उन्होंने चीजों को खुद गढ़ा और खुद आकार दिया। जब भारत का स्वतंत्रता आंदोलन चल रहा था तब उन्होंने कथा साहित्य द्वारा हिंदी और उर्दू दोनों भाषाओं को जो अभिव्यक्ति दी उसने सियासी सरगर्मी को, जोश को और आंदोलन को सभी को उभारा और उसे ताक़तवर बनाया और इससे उनका लेखन भी ताक़तवर होता गया। प्रेमचंद इस अर्थ में निश्चित रुप से हिंदी के पहले प्रगतिशील लेखक कहे जा सकते हैं। 1936 में उन्होंने प्रगतिशील लेखक संघ के पहले सम्मेलन को सभापति के रूप में संबोधन किया था। उनका यही भाषण प्रगतिशील आंदोलन के घोषणा पत्र का आधार बना। प्रेमचंद ने हिन्दी में कहानी की एक परंपरा को जन्म दिया और एक पूरी पीढ़ी उनके कदमों पर आगे बढ़ी, 50-60 के दशक में रेणु, नागार्जुन औऱ इनके बाद श्रीनाथ सिंह ने ग्रामीण परिवेश की कहानियाँ लिखी हैं, वो एक तरह से प्रेमचंद की परंपरा के तारतम्य में आती हैं। प्रेमचंद एक क्रांतिकारी रचनाकार थे, उन्होंने न केवल देशभक्ति बल्कि समाज में व्याप्त अनेक कुरीतियों को देखा और उनको कहानी के माध्यम से पहली बार लोगों के समक्ष रखा। उन्होंने उस समय के समाज की जो भी समस्याएँ थीं उन सभी को चित्रित करने की शुरुआत कर दी थी। उसमें दलित भी आते हैं, नारी भी आती हैं। ये सभी विषय आगे चलकर हिन्दी साहित्य के बड़े विमर्श बने। प्रेमचंद हिन्दी सिनेमा के सबसे अधिक लोकप्रिय साहित्यकारों में से हैं। सत्यजित राय ने उनकी दो कहानियों पर यादगार फ़िल्में बनाईं। 1977 में शतरंज के खिलाड़ी और 1981 में सद्गति। उनके देहांत के दो वर्षों बाद के सुब्रमण्यम ने 1938 में सेवासदन उपन्यास पर फ़िल्म बनाई जिसमें सुब्बालक्ष्मी ने मुख्य भूमिका निभाई थी। 1977 में मृणाल सेन ने प्रेमचंद की कहानी कफ़न पर आधारित ओका ऊरी कथा नाम से एक तेलुगू फ़िल्म बनाई जिसको सर्वश्रेष्ठ तेलुगू फ़िल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला। 1963 में गोदान और 1966 में गबन उपन्यास पर लोकप्रिय फ़िल्में बनीं। 1980 में उनके उपन्यास पर बना टीवी धारावाहिक निर्मला भी बहुत लोकप्रिय हुआ था।
पुरस्कार व सम्मान
प्रेमचंद की स्मृति में भारतीय डाकतार विभाग की ओर से 31 जुलाई 1980 को उनकी जन्मशती के अवसर पर 30 पैसे मूल्य का एक डाक टिकट जारी किया गया।गोरखपुर के जिस स्कूल में वे शिक्षक थे, वहाँ प्रेमचंद साहित्य संस्थान की स्थापना की गई है। इसके बरामदे में एक भित्तिलेख है जिसका चित्र दाहिनी ओर दिया गया है। यहाँ उनसे संबंधित वस्तुओं का एक संग्रहालय भी है। जहाँ उनकी एक वक्षप्रतिमा भी है। प्रेमचंद की 125वीं सालगिरह पर सरकार की ओर से घोषणा की गई कि वाराणसी से लगे इस गाँव में प्रेमचंद के नाम पर एक स्मारक तथा शोध एवं अध्ययन संस्थान बनाया जाएगा। प्रेमचंद की पत्नी शिवरानी देवी ने प्रेमचंद घर में नाम से उनकी जीवनी लिखी और उनके व्यक्तित्व के उस हिस्से को उजागर किया है, जिससे लोग अनभिज्ञ थे। यह पुस्तक 1944 में पहली बार प्रकाशित हुई थी, लेकिन साहित्य के क्षेत्र में इसके महत्व का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसे दुबारा 2005 में संशोधित करके प्रकाशित की गई, इस काम को उनके ही नाती प्रबोध कुमार ने अंजाम दिया। इसका अँग्रेज़ीव हसन मंज़र का किया हुआ उर्दूअनुवाद भी प्रकाशित हुआ। उनके ही बेटे अमृत राय ने कलम का सिपाही नाम से पिता की जीवनी लिखी है। उनकी सभी पुस्तकों के अंग्रेज़ी व उर्दू रूपांतर तो हुए ही हैं, चीनी, रूसी आदि अनेक विदेशी भाषाओं में उनकी कहानियाँ लोकप्रिय हुई हैं।
Sunday, September 12, 2010
ये कैसे 'राजा'
Monday, September 6, 2010
घोंट दिया इंसानियत का गला
Friday, July 23, 2010
देखो तो कैसा लगता हूं मैं...
Sunday, July 18, 2010
अब हमारी भी विशिष्ट पहचान होगी
Sunday, June 20, 2010
उससे भी बडी त्रासदी यह है...
Thursday, June 17, 2010
कहां जा रहे हैं हम...
Saturday, May 15, 2010
ताउम्र याद रहेंगे वो लम्हे...
Thursday, May 6, 2010
राजनीति की चपेट में बचपन...
Wednesday, April 28, 2010
Friday, March 5, 2010
यूँ न निकला करो आजकल रात को...
रात में सड़क पे निकलना मना है मेरे देश में यारों ,
न जाने किस अंधे मोड़ पे मौत से भिड़ंत हो जाए.
यह शेर मेरा नहीं है, और न ही किसी मंजे हुए शायर का. यह शेर तो हमारे मध्यप्रदेश के मुख्य-मंत्री महोदय का है. वे अपने मंत्रिमंडलीय सहयोगियों को यह सुझाव दे रहे हैं. और, हो सकता है ऐसी सलाह कल को वे तमाम जनता को दें. अभी तो वे मंत्रियों को कह रहे हैं कि भई, रात-बेरात बाहर सड़क पर न निकलो. तुम्हारे जान-माल का खतरा है. मंत्री वैसे भी जनता जनार्दन से ऊंचे दर्जे के होते हैं, तो उनकी चिंता खास रखनी ही होगी. तो, यदि मंत्रियों को रात-बेरात बाहर जाना हो तो? सड़क मार्ग नहीं, वायुमार्ग का प्रयोग करें. मंत्री बन गए हैं, पर इतना भी नहीं जानते! और जब जनता जनार्दन हो हल्ला मचाने लगेगी तो? चुनावों के समय वोटों का भय दिखाएगी तब? तब उन्हें जनता को भी ऐसी हिदायतें देने में देर नहीं लगेगी. जनता को तैयार रहना चाहिए, ऐसी किसी भी मुश्किल का सामना करने के लिए.
मगर, फिर, रात में ही क्यों? दिन में सड़क में निकलना क्या सुरक्षित है? जनता के लिए तो रात और दिन बराबर हैं. रात में अंधेरी, गड्ढेदार सड़कें आपकी जान की आफत हैं तो दिन में भीड़भाड़, ट्रैफ़िक जाम और बीच सड़क पर ट्रैफ़िक वसूली. जनता तो ख़ैर भुगतने के लिए ही है, मगर मंत्रियों के लिए ज्यादा अच्छा नहीं होता कि तिथि और समय निश्चित कर दिया जाए कि इस नियत तिथि को ही बाहर निकलें, अन्यथा नहीं. फिर उस तिथि और समय पर बढ़िया चाक चौबन्द सुरक्षा व्यवस्था के साथ सड़कों के गड्ढे इत्यादि पाट कर चकाचक कर दिया जाए ताकि कोई समस्या न रहे, कोई खतरा न रहे – जैसे कि वीवीआईपी के लिए होता है?
एक और शेर -
जॉनी तुम यूँ निकला न करो बन ठन के,
न जाने किस गली तुम्हें लूट लिया जाए.
ये शेर भी मेरा नहीं है, और न ही किसी उस्ताद शायर का. ये जबरदस्त शेर ऑस्ट्रेलिया के मंत्री महोदय का है. अभी कुछ दिन पहले ऑस्ट्रेलिया के मंत्री महोदय ने वहाँ के प्रवासी भारतीय जनता को सलाह दी थी कि वे भिखारियों की तरह के कपड़े पहन कर बाहर निकलें, अमीरों की तरह नहीं, ताकि उन पर जातीय और नस्ली प्रहार न हों. उन्हें ये भी हिदायतें दी गई थीं कि आभूषण पहन कर न निकलें, अपने महंगे आई-फोन को दिखाते हुए बात न करें और न ही गाने सुनें. सारी हिदायतें मानवीय गुणों, मानवीय स्वभाव के विरूद्ध! और, अभी तो भारतीय प्रवासियों के लिए ये सलाहें दी गई हैं, कल को ये जातीय और नस्ली हिंसा अन्य जातियों और अन्य नस्लों पर भी होने लगें तब? और, अब जब सरकार ने सलाह दे दी है, तो भिखारी की तरह नजर आते किसी शख्स की ख़ैर नहीं. वो उत्पाती ऑस्ट्रेलियाइयों की निगाह में सबसे पहले आएगा.
मैं अभी ऑस्ट्रेलिया में तो नहीं हूँ, अतः मैं भिखारियों जैसे कपड़े पहनने के लिए अभिशप्त नहीं हूं. मैं अभी मंत्री भी नहीं हूं, और ईश्वर की दया से रात्रि में घूम सकता हूं, क्योंकि ये सलाह अभी मुझ जनता को नहीं मिली है.
शुक्र है!
मैं शायर तो नहीं...पर कम भी नहीं
हुआ नहीं किसी से गिला
लगातार चले ये सिलसिला
उसी आस में जी रहा
पानी घाट-घाट का पी रहा
ध्वज मैं कोई लहराता नहीं
यारों से मैं कतराता नहीं
यहीं सच है कि मैं हूं एक सैलानी
Thursday, March 4, 2010
Saturday, February 27, 2010
Friday, February 26, 2010
ब्लॉग के लिए खुद कम्पोज करता हु-अमर सिंह
Wednesday, February 24, 2010
Sunday, February 21, 2010
26/11 यानी हर आंख में आंसू...और दिल में दर्द के प्रायोजक हैं न्यूज़ चैनल
लेकिन किस स्तर पर किस तरह से किस सोच के तहत कार्यक्रम और विज्ञापन जुड़ते हैं, यह मुंबई का अनुभव मेरे लिये 26/11 की घटना से भी अधिक भयावह था। और उसके बाद जो संवाद मुंबई के चंद पत्रकारों के साथ हुआ, जो मराठी और हिन्दी-अग्रेजी के राष्ट्रीय न्यूज चैनलों से जुड़े थे, वह मेरे लिये आतंकवादी कसाब से ज्यादा खतरनाक थे।
जो बातचीत में निकला वह न्यूज चैनलों के मुनाफा बनाने की गलाकाट प्रतियोगिता में किस भावना से काम होता अगर इसे सच माना जाये तो कैसे.....जरा बानगी देखिये। एक न्यूज चैनल में मार्केटिंग का दबाव था कि अगर सालस्कर...कामटे और करकरे की विधवा एक साथ न्यूज चैनल पर आ जायें और उनके जरिये तीनो के पति की मौत की खबर मिलने पर उस पहली प्रतिक्रिया का रिक्रियेशन करें और फिर इन तीनो को सूत्रधार बनाकर कार्यक्रम बनाया जाये तो इसके खासे प्रयोजक मिल सकते हैं । अगर एक घंटे का प्रोग्राम बनेगा तो 20-25 मिनट का विज्ञापन तो मार्केटिग वाले जुगाड लेंगे। यानी 10 से 15 लाख रुपये तो तय मानिये।
वहीं एक प्रोग्राम शहीद संदीप उन्नीकृष्णन के पिता के उन्नीकृष्णन के ऊपर बनाया जा सकता है । मार्केटिंग वाले प्रोग्रामिंग विभाग से और प्रोग्रामिग विभाग संपादकीय विभाग से इस बात की गांरटी चाहता था कि प्रोग्राम का मजा तभी है, जब शहीद बेटे के पिता के. उन्नीकृष्णन उसी तर्ज पर आक्रोष से छलछला जायें, जैसे बेटे की मौत पर वामपंथी मुख्यमंत्री के आंसू बहाने के लिये अपने घर आने पर उन्होंने झडक दिया था। यानी बाप के जवान बेटे को खोने का दर्द और राजनीति साधने का नेताओ के प्रयास पर यह प्रोग्राम हो।
विज्ञापन जुगाड़ने वालो का दावा था कि अगर इस प्रोग्राम के इसी स्वरुप पर संपादक ठप्पा लगा दे तो एक घंटे के प्रोग्राम के लिये ब्रांडेड कंपनियो का विज्ञापन मिल सकता है । 8 से 10 लाख की कमायी आसानी से हो सकती है। वहीं विज्ञापन जुगाड़ने वाले विभाग का मानना था कि अगर लियोपोल्ड कैफे के भीतर से कोई प्रोग्राम ठीक रात दस बजे लाइव हो जाये तो बात ही क्या है। खासकर लियोपोल्ड के पब और डांस फ्लोर दोनों जगहों पर रिपोर्टर रहें। जो एहसास कराये कि बीयर की चुस्की और डांस की मस्ती के बीच किस तरह आतंकवादी वहां गोलियों की बौछार करते हुये घुस गये। .....कैसे तेज धुन में थिरकते लोगों को इसका एहसास ही नहीं हुआ कि नीचे पब में गोलियों से लोग मारे जा रहे हैं.....यानी सबकुछ लाइव की सिचुएशन पैदा कर दी जाये तो यह प्रोग्राम अप-मार्केट हो सकता है, जिसमें विज्ञापन के जरीये दस-पन्द्रह लाख आसानी से बनाये जा सकते हैं।
और अगर लाइव करने में खर्चेा ज्यादा होगा तो हम लियोपोल्ड कैफे को समूचे प्राईम टाइम से जोड़ देंगे। जिसमें कई तरह के विज्ञापन मिल सकते हैं। यानी बीच बीच में लियोपोल्ड दिखाते रहेंगे और एक्सक्लूसिवली दस बजे। इससे खासी कमाई चैनल को हो सकती है । लेकिन मजा तभी है जब बीयर की चुस्की और डांस फ्लोर की थिरकन साथ साथ रहे। एक न्यूज चैनल लीक से हटकर कार्यक्रम बनाना चाहता था। जिसमें बच्चों की कहानी कही जाये। यानी जिनके मां-बाप 26/11 हादसे में मारे गये......उन बच्चों की रोती बिलकती आंखों में भी उसे चैनल के लिये गाढ़ी कमाई नजर आ रही थी। सुझाव यह भी था कि इस कार्यक्रम की सूत्रधार अगर देविका रोतावन हो जाये तो बात ही क्या है। देविका दस साल की वही लड़की है, जिसने कसाब को पहचाना और अदालत में जा कर गवाही भी दी।
एक चैनल चाहता था एनएसजी यानी राष्ट्रीय सुरक्षा जवानो के उन परिवारो के साथ जो 26/11 आपरेशन में शामिल हुये । खासकर जो हेलीकाप्टर से नरीमन हाऱस पर उतरे। उसमें चैनल का आईडिया यही था कि परिजनो के साथ बैठकर उस दौरान की फुटेज दिखाते हुये बच्चों या पत्नियो से पूछें कि उनके दिल पर क्या बीत रही थी जब वे हेलीकाप्टर से अपनी पतियों को उतरते हुये देख रही थीं। उन्हें लग रहा था कि वह बच जायेंगे। या फिर कुछ और.......जाहिर है इस प्रोग्राम के लिये भी लाखों की कमाई चैनल वालो ने सोच रखी थी।
26/11 किस तरह किसी उत्सव की तरह चैनलों के लिय़े था, इसका अंदाज बात से लग सकता है कि दीपावली से लेकर न्यू इयर और बीत में आने वाले क्रिसमस डे के प्रोग्राम से ज्यादा की कमाई का आंकलन 26/11 को लेकर हर चैनल में था। और मुनाफा बनाने की होड़ ने हर उस दिमाग को क्रियटिव और अंसवेदवशील बना दिया था जो कभी मीडिया को लोगों की जरुरत और सरकार पर लगाम के लिये काम करता था।
जाहिर है न्यूज चैनलों ने 26/11 को जिस तरह राष्ट्रभक्ति और आतंक के खिलाफ मुहिम से जोड़ा, उससे दिनभर कमोवेश हर चैनल को देखकर यही लगा कि अगर टीवी ना होता तो बेडरुम और ड्राइंग रुम तक 26/11 का आक्रोष और दर्द दोनों नहीं पहुंच पाते । लेकिन 26/11 की पहली बरसी के 48 घंटे बाद ही मुबंई ने यह एहसास भी करा दिया कि आर्थिक विकास का मतलब क्या है और मुंबई क्यों देश की आर्थिक राजधानी है। और कमाई के लिये कैसे न्यूज चैनल ब्रांड में तब्दील कर देते है 26/11 को। याद किजिये मुबंई हमलों के दो दिन बाद प्रधानमंत्री 28/11/2008 को देश के नाम अपने संबोधन में किस तरह डरे-सहमे से जवानों के गुण गा रहे थे। वही प्रधानमंत्री मुंबई हमलों की पहली बरसी पर देश में नहीं थे बल्कि अमेरिका में थे और घटना के एक साल बाद 25/11/2009 को अमेरिकी जमीन से ही पाकिस्तान को चुनौती दे रहे थे कि गुनाहगारो को बख्शा नहीं जायेगा। तो यही है 26/11 की हकीकत, जिसमें टैक्सी ड्राइवर मोहन आगाशे का अपना दर्द है.......न्यूज चैनलो की अपनी पूंजी भक्ति और प्रधानमंत्री की जज्बे को जिलाने की अपनी राष्ट्र भक्ति। आपको जो ठीक लगे उसे अपना लीजिये ।
पत्रकार जगत की कलई खोलता यह आलेख हे पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी ने
रिश्ते तार तार
Saturday, February 20, 2010
जॉर्ज फर्नाडिज लापता!
चंदनमल बैद नहीं रहे
थोड़ी थोड़ी पिया करो
कोटा। आबकारी निरोधक दल ने गुरूवार देर रात बारां रोड पर नाकाबंदी के दौरान एक ट्रक से 890 पेटी अवैध अंग्रेजी शराब बरामद की। यह शराब मध्यप्रदेश से तस्करी कर सीमावर्ती जिले बारां के रास्ते राजस्थान में लाई जा रही थी। इसकी कीमत साढ़े 21 लाख रूपए आंकी गई है।
मुखबिर की सूचना पर उप निदेशक प्रवर्तन सुरेन्द्र सिंह भाटी ने सहायक निदेशक प्रवर्तन आशीष भार्गव व नरेन्द्र मीणा के नेतृत्व में एक टीम गठित कर बारां रोड पर मानपुरा गांव के आगे नाकाबंदी शुरू कराई। शक होने पर एक ट्रक को रोककर तलाशी ली तो ट्रक से 280 पेटी रम और 610 पेटी जिन की बरामद की गई।
यह शराब खरगोन (मध्यप्रदेश) में निर्मित और केवल अरूणाचल प्रदेश में बिक्री योग्य है। ट्रक व शराब को जब्त कर चालक भिलाय (छत्तीसगढ़) निवासी गुरूवेल सिंह व उसके साथ ट्रक में मौजूद कुन्दू सिंह को गिरफ्तार कर लिया गया। दोनों को न्यायालय में पेश कर चार दिन के रिमाण्ड पर सौंपा गया है।
पहले भी करते रहे तस्करी
पूछताछ में चालक ने बताया कि यह माल इंदौर निवासी लड्डू भैय्या उर्फ लड्डू सेठ ने भेजा था। ट्रक बड़गांव के निकट खड़ा करना था। वहां से माल दूसरे लोगों को "ठिकाने" लगाना था। पुलिस ने लड्डू सेठ व ट्रक मालिक को भी प्रकरण में अभियुक्त बनाया है। गिरफ्तार चालक ने पहले भी दो-तीन बार इस तरीके से माल लाना कबूला है।
फर्जी बिल्टियां बरामद
सहायक निदेशक भार्गव ने बताया कि ट्रक रोककर जब चालक से पूछा गया तो उसने ट्रक में साबुन की पेटियां होना बताई। उसने पारसमल एण्ड कम्पनी नांदेड़ (महाराष्ट्र) का 925 पेटी साबुन का बिल भी दिखाया। चालक से सम्राट रोडलाइंस, कटारिया कॉम्पलेक्स, देवास नाका, इंदौर की दो दर्जन बिल्टियां भी बरामद की गई है। ऎसे में यह माना जा रहा है कि अवैध शराब को ठिकाने तक पहुंचाने के लिए इन बिल्टियों का सहारा लिया जाता था।
एक मामला, चार राज्य
शराब का निर्माण स्थल और उसे भेजने वाला तस्कर मध्यप्रदेश का, बिक्री के लिए चुना राजस्थान। बरामद शराब अरूणाचल प्रदेश में बिक्री के लिए थी और शराब परिवहन कर रहा ट्रक निकला गुजरात का। एक बार तो खुद आबकारी निरोधक दल के अधिकारी भी चौंक गए कि शराब तस्कर कितना शातिर है।
अपने ही करा रहे जासूसी
और खाली हो गई जेल
भागने के लिए चाय का समय चुनापुलिस अधीक्षक मीणा ने बताया कि चित्तौड़ जिला कारागृह में सुबह करीब सात बजे रोज की तरह जेल प्रहरी दूध-चाय के लिए कैदियों के बैरक के पास गया, तभी कुछ कैदी बैरक का लॉक खोल कर बाहर आ गए। कैदियों को बैरक के बाहर देख कर संतरी सोहनलाल ने उनकी तरफ राइफल तानी। इस पर कैदियों ने सोहनलाल पर हमला कर दिया और उसकी राइफल छीन ली। कैदियों ने राइफल के बट से सोहनलाल और हेडकांस्टेबल दिनेश श्रीमाली की धुनाई कर दी।संतरी को बैरक में डालाबताया जाता है कि कैदियों ने सोहनलाल और दिनेश को बैरक में बंद कर दिया और एक-एक कर जेल से 23 कैदी बाहर निकल गए। कैदी संतरी की राइफल भी अपने साथ ले गए। कैदी जेल के बाहर खड़ी सफेद टवेरा गाड़ी और दूधिये की लूना ले भागे। कैदियों की तलाश में आस-पास के जिलो में कड़ी नाकाबंदी कर दी गई है। उल्लेखनीय है कि जेल में कुल 276 कैदी मौजूद हैं और उनकी सुरक्षा के लिए मात्र सात सुरक्षाकर्मियों की मौजूदगी जेल प्रशासन पर सवाल खड़े करती है। डीजी भी रवाना स्थिति का जायजा लेने के लिए जेल डीजी ओमेंद्र भारद्वाज भी गुरूवार सुबह जयपुर से चित्तौड़गढ़ रवाना हो गए। सुनियोजित फरारी जिला कारागृह के जिस बैरक से कैदी फरार हुए हैं, उस बैरक के गेट का लॉक करीब एक सप्ताह से खराब था। इस मामले में संतरी ने कारागृह प्रशासन को सूचना भी दे दी थी। इसके बावजूद बैरक के लॉक को ठीक नहीं करवाया गया। माना जा रहा है कि जिस टवेरा गाड़ी से कैदी भागे, उसका इंतजाम भी कैदियों ने जेल के बाहर मौजूद अपने साथियों की मदद से किया था।नंगे पैर भागे बताया जाता है कि जेल से फरार सभी कैदी नंगे पैर थे। संतरी और हेडकांस्टेबल पर हमला करने के बाद सभी कैदी जेल से नंगे पैर ही फरार हो गए। वाह ! रिकॉर्ड ही बनवा दियाजयपुर। चित्तौडगढ़ जेल से भागे 23 कैदियों ने जेल विभाग के लिए नया इतिहास रचा है। इससे पहले वर्ष 1984-85 में बांसवाड़ा की जिला जेल से एक साथ 22 कैदी फरार हुए थे, जिसमें कैदियों को लीडर एक कुख्यात डकैत था। हालांकि बाद में पुलिस ने उसे धर दबोचा था, लेकिन यही कुख्यात डकैत 1987 में एक बार फिर सात कैदियों के साथ जेल की सुरक्षा व्यवस्था को धता बताते हुए फरार हो गया और आज तक नहीं लौटा। उसके बाद 2006 में बीलाड़ा जेल से एक साथ सात कैदी जेल की दीवार में छेद कर फरार हो गए थे। इसी तरह 2007 में निम्बाहेड़ा जेल से भी 12 कैदी संतरी और जेलरों को बेहोशी की दवाइयां देकर फरार होने में कामयाब रहे।
90 प्रतिशत से ज्यादा जेलें ओवर फ्लो राज्य की जेलों की स्थिति का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि राज्य की आठ सेंट्रल जेलों, 25 से ज्यादा जिला जेलों और 16 से ज्यादा सब जेलों में से 90 प्रतिशत जेलों में निर्धारित संख्या से काफी अधिक कैदियों को रखा गया है। राजस्थान जेल के रिकार्ड्स पर नजर दौड़ाई जाए तो आठ सेंटल जेलों में महिला और पुरूष कैदियों को मिलाकर मात्र 7970 कैदी रखने की क्षमता है। जबकि इस समय सेंट्रल जेलों में 12300 से भी ज्यादा ठूसें गए हैं। वहीं राज्य की 25 जिला जेलों और 17 सब जेलों में 5889 कैदी रखने की क्षमता है, इसके उलट इस समय इन जगहों पर 10100 कैदी ठूंसे गए हैं। इतना ही नहीं महिला जेल में रहने वाली कैदियों के बच्चों के बारे में आंकड़ों में जानकारी नही दी गई है।
क्यों नहीं बन रही माँ
37 साल की ऎश्वर्या ने कुछ समय पहले खुद भी मां बनने की मंशा जाहिर की थी। लेकिन उन्होंने भी अपनी बीमारी की बात छिपाए रखी थी। उनकी बीमारी से बच्चन परिवार की चिंता बढ़ गई है। माना जा रहा है कि इसी कारण से कुछ समय पहले अमिताभ बच्चन ने अपने ब्लॉग पर अमीरों को टीबी ( द रिच मैन्स टीबी) के बारे में कुछ लिखा था। हालांकि उन्होंने भी कुछ स्पष्ट नहीं किया था, लेकिन उस ब्लॉग को ऎश्वर्या की खबर से जोड़ कर देखने से उनकी नाराजगी साफ उभर आती है। परिवार ने हालांकि सब कुछ वक्त पर छोड़ दिया है, लेकिन कब का सवाल अब भी बना हुआ है। ऎश्वर्या की उम्र ढलती जा रही है। समय जितना गुजरेगा, मां बनने में उतनी ही परेशानी आ सकती क्यूं मां नहीं बन पा रही ऎश्वर्या राय...